कोलकाता, । भारत और पाकिस्तान के बीच सैन्य टकराव के माहौल में वर्ष 1971 का पूर्वी पाकिस्तान से बांग्लादेश बनने का युद्ध भी चर्चा में है, जब भारत ने पूर्वी फ्रंट पर पाकिस्तान को न केवल धूल चटाई बल्कि 92 हजार पाक सैनिकों को समर्पण पर भी मजबूर किया। 1971 का भारत-पाक युद्ध न केवल स्वतंत्र भारत के इतिहास का सबसे निर्णायक सैन्य संघर्ष था, बल्कि यह उन वीर सैनिकों के साहस और बलिदान की मिसाल है, जिन्होंने अपनी मातृभूमि की रक्षा में प्राणों की आहुति दी। उस युद्ध के सबसे कठिन मोर्चों में से एक था जम्मू-कश्मीर का छम्ब सेक्टर, जहां बंगाल के बेटे अरुण रॉय ने ‘8 जम्मू एंड कश्मीर मिलिशिया यूनिट’ के एडजुटेंट (कार्यपालक अधिकारी) के रूप में असाधारण नेतृत्व दिखाया। अब 79 वर्ष के हो चुके रॉय, जिन्होंने 2006 में जीओसी के रूप में सेना से सेवानिवृत्ति ली, आज भी उस युद्ध की भयावहता, वीरता और बलिदान की यादों को अपनी स्मृति में जीवंत रखे हुए हैं। अपने 44 वर्षों के सैन्य जीवन की सबसे स्मरणीय झलकियों को उन्होंने हिन्दुस्थान समाचार के साथ एक विशेष बातचीत में साझा किया।

प्रश्न: आपका बचपन कहां बीता? उत्तर: मेरा स्कूल लखनऊ के सेंट फ्रांसिस में था, इसके अलावा मैं मद्रास, दिल्ली और अंबाला में भी रहा। 16 वर्ष की उम्र में एनडीए की परीक्षा पास की और 1963 में सेना में भर्ती हुआ। प्रशिक्षण के बाद 1967 में अधिकारी बना।

प्रश्न: क्या आपके पिता या दादा भी सेना में थे?उत्तर: नहीं, मेरे दादा और पिता हिन्दुस्तान इंश्योरेंस में काम करते थे। लेकिन मेरे चार चाचा सेना में थे— दो थलसेना में, एक नौसेना और एक वायुसेना में।

प्रश्न: क्या आपके बेटे ने भी सेना को चुना?उत्तर: नहीं, वह डॉन बॉस्को स्कूल में पढ़ता था। मैंने सेना ज्वॉइन करने की सलाह दी थी लेकिन वह कम उम्र में ही अमेरिका चला गया। अब वह वहां तीन कंपनियों का वाइस प्रेसिडेंट है।

प्रश्न: स्वतंत्रता के बाद भारत द्वारा लड़े गए युद्धों को आप कैसे आंकते हैं?उत्तर: कारगिल को मैं युद्ध नहीं मानता। वह एक घुसपैठ थी जिसे सेना ने तुरंत पीछे धकेल दिया। 1962 में चीन के साथ युद्ध बड़ा था। 1965 में पाकिस्तान से लड़ाई गुजरात से लेकर कश्मीर तक फैली थी। लेकिन 1971 में पूर्व पाकिस्तान का भी मोर्चा जुड़ गया इसलिए वही सबसे बड़ा युद्ध था।

प्रश्न: सबसे कठिन युद्ध परिस्थिति कब झेली?उत्तर: 1971 का युद्ध सबसे कठिन था। मैं उस समय छम्ब-सुंदरबनी सेक्टर में कैप्टन था। तीन दिसंबर को पाकिस्तान ने युद्ध की घोषणा की और छम्ब युद्धभूमि बन गया।

प्रश्न: उस समय आपकी जिम्मेदारी क्या थी?उत्तर: मैं ‘8 जम्मू-कश्मीर मिलिशिया यूनिट’ का एडजुटेंट था। लगभग 1000 सैनिकों की एक बटालियन का नेतृत्व संभाल रहा था।

प्रश्न: तीन दिसंबर, 1971 का कोई खास स्मरण?उत्तर: हमारी योजना थी पाकिस्तानी सेना को अंदर घुसकर घेर लेने की, लेकिन अचानक मुख्यालय से आदेश मिला कि हम डिफेंसिव हो जाएं क्योंकि पाकिस्तान ने पूरी तैयारी के साथ हमला किया था।

प्रश्न: क्या उस समय परिवार की चिंता नहीं हुई?उत्तर: उस समय मेरी शादी नहीं हुई थी। मां लखनऊ में थीं लेकिन युद्ध के समय सैनिक केवल अपने बाएं-दाएं देखते हैं— बाईं ओर रेडियो ऑपरेटर और दाईं ओर रसद देने वाला जवान।

प्रश्न: युद्ध के दौरान कितना खतरा था?उत्तर: 17 दिन तक ठीक से सोना भी मुश्किल था। एक-डेढ़ घंटे की झपकी लेता था। खाना कभी-कभी सिर्फ रोटी और अंडा, वह भी ट्रेंच के भीतर। हर वक्त बम और गोलों की आवाजें!

प्रश्न: आज भी क्या कोई दृश्य याद आता है?उत्तर: आवाजें और मौतें। दूर-दूर तक लाशें बिखरी पड़ी थीं। उन्हें दफनाने की भी फुर्सत नहीं थी। घायलों की देखभाल भी चुनौती थी।

प्रश्न: युद्ध आखिर कब थमा?उत्तर: 16 दिसंबर को। लेकिन हमें 15 दिसंबर को ही पता चल गया था कि पूर्व पाकिस्तान में पाकिस्तान ने हथियार डाल दिए हैं।

प्रश्न: इसका मतलब, 16 दिसंबर से शांति?उत्तर: बिलकुल नहीं। ‘नाथुआ टिब्बा केरी देवा’ में कौन घायल हुआ, कौन मरा- यह सब प्रमाणित करना मुश्किल काम था। शवों की पहचान भी कठिन थी क्योंकि उनकी गर्दन या हाथ उड़ चुके थे।

प्रश्न: क्या आपके साथ कोई बंगाली अफसर भी थे?उत्तर: हां, मनीष गुप्ता इंजीनियरिंग कोर में थे। बाद में आईएएस होकर पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव बने और फिर मंत्री भी। स्वप्न मंडल नाम के एक और अफसर छम्ब में ही थे, वे सेना में ही रहे।

प्रश्न: क्या छम्ब के अलावा कोई और अनुभव खास रहा?उत्तर: हां, भूटान में 1978 से 1981 तक वहां की सेना को प्रशिक्षण दिया। फिर 1984-85 में रूस गया और 1996-99 में वाशिंगटन स्थित भारतीय दूतावास में रक्षा सलाहकार रहा।

प्रश्न: रिटायरमेंट के बाद क्या किसी संस्था से जुड़े?उत्तर: प्रस्ताव मिले लेकिन मैंने नहीं लिया। सेना के अनुशासन के बाद बाकी दुनिया में ढलना मुश्किल होता है।

प्रश्न: जीवन की समीक्षा करें तो कोई पछतावा?उत्तर: बिलकुल नहीं। मैंने हमेशा देश के लिए काम किया। मुझे जो सम्मान सेना में मिला, वह किसी आईएएस या आईएफएस से कम नहीं। आज भी, लगभग 80 की उम्र में, वह सम्मान मिल रहा है। फिर अफसोस किस बात का?

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