भोपाल। योग के बारे में कहा जाता है, यह जोड़ता है। एक चित्‍त-एक ध्‍येय के लिए समर्प‍ित करता है और यह चित्‍त की एकरूपता एवं समर्पण ही किसी भी व्‍यक्‍ति को उच्‍चावस्‍था तक पहुंचाता है। महर्ष‍ि पतंजलि योग की परिभाषा कुछ यूं करते है; ‘चित्तवृत्तिनिरोधः’ ही योग है। अर्थात् मन को इधर-उधर भटकने न देना, केवल एक ही वस्तु में स्थिर रखना ही योग है। यह योग जब किसी के जीवन में प्रकट होता है तो उसकी खुशबू हिरण की उस कुंडली में बसे कस्‍तूरी की तरह सर्वव्‍यापी हो जाती है जो स्‍वयं को तो आनंद से भर ही देती है। संपूर्ण वातावरण को भी आनन्‍दमय बना देती है। नृत्‍य भी वह कला है जो न सिर्फ स्‍वयं को परमानन्‍द की अनुभूति कराती है बल्‍कि जो उसके अंदर उतरता है वह भी आनंद में गोते लगाता है। प्रसिद्ध ओडिसी नृत्यांगना शुभदा वराडकर की कहनी भी कुछ ऐसी है, जिन्‍होंने अब तक न जाने कितनों को अपने नृत्‍य से परम आनंद में डुबोया है और कितनों को ही नृत्‍य की राह पर चलाया है।

मुंबई से अपने छात्रों के साथ प्रस्तुत अपनी प्रस्तुति, मधुरम के लिए, शुभदा वराडकर ने संस्कृत और मराठी साहित्य का गहन अध्ययन किया। शाश्वत प्रेम के प्रतीक के रूप में कृष्ण की अपनी खोज को पुष्ट करने के लिए वे मध्यकालीन काल की कविताओं का उपयोग करती हैं। वराडकर के गायन में 12वीं शताब्दी के मराठी संत-कवि ज्ञानेश्वर प्रमुख रूप से शामिल हैं। ज्ञानेश्वर को भगवद् गीता पर अपनी टिप्पणी के लिए जाना जाता है, उन्होंने प्रेमियों द्वारा झेले गए वियोग के दर्द को उजागर करते हुए ‘विरनी’ रचनाओं की एक श्रृंखला भी लिखी है। “ज्ञानेश्वर ने इन रचनाओं में कृष्ण की सुंदरता से मंत्रमुग्ध होकर सखी भाव व्यक्त किया। हम कृष्ण के विट्ठल रूप के साथ अपनी व्याख्या समाप्त करते हैं। वराडकर जयदेव के 12वीं सदी के महाकाव्य गीत गोविंद से अष्टपदी (कविता), सखी हे केशी मथानमुदरम का नृत्य भी करती हैं। कविता में, राधा कल्पना की दुनिया में प्रवेश करती हैं क्योंकि वह अपने दोस्त से कृष्ण को अपने पास लाने की विनती करती हैं। वह कृष्ण के साथ अपनी पहली मुलाकात को याद करती हैं-जंगल में प्रेम-प्रसंग का एक धीमा, सुखद परिचय-जो खतरे से भरा हुआ था लेकिन अंततः एक संतुष्टिदायक अनुभव था, वे इनका सभी को अपनी नृत्‍यभंगिमाओं से आभास कराती हैं।

शुभदा, “हिन्‍दुस्‍थान समाचार“ के साथ विशेष बातचीत में कहती हैं, ‘‘मेरे लिए नृत्य केवल एक रचनात्मक कला नहीं है, बल्कि जीवन को समृद्ध और विकसित करने का एक साधन भी है। यह स्‍व प्रेरित होने के लिए तो है ही, इससे अनेक लाेग अपने जीवन में प्रेरणा प्राप्‍त करते हैं। जब हम कला की भूमिका में नृत्‍यरत रहते हैं, तब अनेक दर्शक दीर्घा में बैठकर उस नृत्‍य का आनंद ले रहे होते हैं, उस समय यह आनंद देह से परे मन, बुद्धि और आत्‍मा को एकाकार कर देता है। वैसे शरीर एक स्‍थान पर कुछ ही समय में विद्रोह कर अपनी स्‍थ‍िति बदलने के लिए मन से संदेश ग्रहण करता है, किंतु नृत्‍य करते समय और देखते समय दोनों स्‍थ‍िति में जैसे मन भूल ही जाता है कि शरीर को अपनी स्‍थ‍िति बदलने का संदेश भी भेजना है, शरीर का रोम-रोम नृत्‍य और उसके साथ जुड़े सुमधुर संगीत में कहीं खो जाता है।’’

नृत्‍य से कैंसर को दी मात और पाया दूसरा जन्‍म-

वैसे प्रसिद्ध ओडसी नृत्यांगना शुभदा वराडकर का नृत्य से कैंसर से लड़ाई लड़ना कितना आसान रहा और वे इसे सहजता से जीतने में भी सफल रहीं, यह जीत उनके जीवन में तो बहुत मायने रखती है। साथ ही जीवन से हार मानकर हतोत्‍साहित होने वालों को भी बहुत प्रेरणा देती हैं। आज अपने जीवन के 63 साल देख चुकी शुभदा वराडकर को चालीस वर्ष की आयु में कर्क रोग (कैंसर) का पता चला था। जब शुभदा ने अपनी माँ को कैंसर की खबर बताई, तो उन्हें लगा कि वे भावनात्मक रूप से कमज़ोर हो जाएँगी। हालाँकि भले ही खबर सुनकर उन्हें बहुत धक्का लगा हो, लेकिन उनके परिवार ने जल्द ही शुभदा को इस सफ़र में पूरा समर्थन देने के लिए तैयार कर लिया। एक पेशेवर कलाकार होने के नाते शुभदा को इस बात की चिंता थी कि उनकी बीमारी के बारे में लोगों को पता चलने पर वे उनके प्रति दया का भाव रखकर विरोधी एवं आलोचक जो प्राय: हर सफल व्‍यक्‍ति के होते ही हैं, अवसर पाकर उन्हें मिलने वाले नृत्‍य आयोजनों को रोकने के लिए प्रयासरत न हो जाएं । ऐसा होने की संभावना इसलिए भी अधिक रहती, क्‍योंकि नृत्य मुख्य रूप से प्रदर्शन और अभिनय करने के लिए कलाकार की शारीरिक क्षमता पर निर्भर है।

हर किसी व्‍यक्‍ति के जीवन में कोई भी उम्‍मीद का होना जरूरी है-

शुभदा कहती हैं, ‘‘कोई भी व्‍यक्‍ति क्‍यों न हो, यदि उसमें जीने की उम्‍मीद बनी हुई है तो फिर उसका जीवन जीना आसान हो जाता है, वैसे कष्‍ट तो किसी भी मनुष्‍य के जीवन में जन्‍म के साथ ही उत्‍पन्‍न होना शुरू हो जाते हैं और अंत तक किसी न किसी रूप में बने ही रहते हैं, किंतु इसमें जो दृष्‍टा का नजरिया रखते हैं वे इन तमाम कष्‍टों में से भी अपने लिए जीवन में सुख, शांति सफलतम जीवन का रास्‍ता बना ही लेते हैं, फिर मुझे तो अपनी कला से प्‍यार है और जुनून भी, इसलिए जीने की उम्मीद अभी एक कलाकार के रूप में बाकी दिखी। मुझे लगता था कि कैंसर पर जीत हासिल करना ही है, क्‍योंकि उनकाे अभी वे कला प्रस्‍तुतियां देना शेष हैं जो अब तक उनके द्वारा नहीं दी जा सकी हैं। मैं प्रार्थना करती रही, चिकित्‍सा के दौरान एक कलाकार के रूप में भविष्‍य की श्रेष्‍ठ प्रस्‍तुतियों की योजना एवं उसकी रचना बनाती रही और अंतत: मुझे कैंसर से बाहर आने में सहज सफलता मिली।’’

नृत्य ही है उनके जीवन की जीवनरेखा-

उन्‍होंने बताया कि बात नवंबर 2006 की है, एक प्रदर्शन के लिए मैं लंदन में थी। मंच पर नृत्य करते समय बेचैनी महसूस होने लगी और एहसास हुआ कि उन्हें खून बह रहा है। कुछ गड़बड़ है, किंतु वहां मैंने अपना प्रदर्शन पूरा किया। उस समय मेरी उम्र 40 साल थी। मैं अपना लंदन दौरा जल्‍द समाप्‍त कर भारत आ गई और मुंबई लौटते ही सोनोग्राफी कराने पर उनके पेट में 10 इंच लंबा ट्यूमर पाया गया। यह इतना बड़ा था कि इसे लेजर प्रक्रिया से हटाने के लिए चिकित्‍सकों ने मना कर दिया था । सर्जरी ही अंतिम विकल्‍प है, ऐसा बताया गया। मुझे एक परफ़ॉर्मेंस भी देनी थी, स्‍वाभाविक है कि मेरे दिमाग में बस यही चल रहा था कि नृत्‍य परफ़ॉर्मेंस के पूर्व ट्यूमर को हटाने का ऑपरेशन हो जाए। जो हुआ और सफल रहा। ट्यूमर को बायोप्सी के लिए भेजा गया और मैं सर्जरी के पंद्रहवें दिन फिर से काम करने लगी। शुभदा कहती हैं कि सर्जरी के तुरंत बाद डांस करना आसान नहीं था। परन्‍तु नृत्‍य के जीवन में होने से कभी कैंसर जैसे महारोग में भी दर्द का अहसास नहीं हुआ। उन्‍होंने बताया कि उनकी अंतिम रिपोर्ट से पता चला कि उन्‍हें दो घातक ट्यूमर थे, एक अंडाशय में और दूसरा गर्भाशय में। कीमोथेरेपी सत्र तुरंत शुरू हो गए। यह आठ महीने की लंबी यात्रा थी, जिसमें कीमो और विकिरण की लंबी और तीव्र अवधि शामिल थी। किंतु बीमारी की इस पूरी यात्रा में मैंने नृत्य नहीं छोड़ा। वास्तव में नृत्य ही मेरी जीवनरेखा है।

परिवार की हर शर्त मानी, लेकिन नृत्‍य कभी नहीं छोड़ा-

जब शुभदा वराडकर से पूछा गया कि भारतीय नृत्‍य की अनेक शाखाएं हैं, उनमें आपने ओडिसी नृत्‍य का चुनाव ही क्‍यों किया और इसकी शुरूआत कैसे हुई? तब वह कहती हैं, ‘‘आज जो वातावरण समाज का दिखाई देता है, ऐसा ही कुछ पहले भी रहा है, बच्‍चों में पुत्र और पुत्री के लिए मध्‍यमवर्गीय परिवार की सीमाएं निश्‍चित हैं। कोई भी मध्‍यमवर्गीय परिवार क्‍यों न हो, नृत्‍य, नाटक जैसे कार्यों को वह मनोरंजन तक सीमित रखता है और रोजगार के लिए प्राय: इसे प्राथमिकता में नहीं रखता। ऐसे में स्‍वाभाविक है कि मेरा परिवार भी इससे अछूता नहीं रहा था, जब मैं अपने परिवार को बताया कि मुझे नृत्‍य की कक्षाएं लेनी हैं, तब मना मुझे भले ही किसी ने नहीं ताे किया, लेकिन इस मेरी एक इच्‍छा को पूरा करने के पहले अपनी एक शर्त जरूर लगा दी। मां और पिताजी का कहना था कि पहले उन्हें कक्षा में अच्छे ग्रेड लाना आवश्‍यक है, यदि पढ़ाई ठीक होती रहेगी तो तुम्‍हें नृत्‍य सीखने एवं करने से कोई नहीं रोकेगा। स्‍वभाविक है कि नृत्‍य सीखना था तो यह शर्त मानना मेरे लिए अनिवार्य रहा, इसलिए प्रयास मेरा यही रहा कि पढ़ाई में भी अच्‍छे अंक लाने हैं और नियमित तौर पर नृत्‍य का अभ्‍यास करने गुरु चरणों में उनके सानिध्‍य में रहना है।’’



पद्मविभूषण गुरु केलुचरण महापात्रा ने बदल दी थी ‘शुभदा’ के जीवन की दिशा-

वे कहती हैं, ‘‘अगर आप मुझसे पूछें तो मुझे याद नहीं आता है कि मैंने कब नृत्य करना शुरू किया- मैं बचपन में भी नृत्य करती रही। मेरे लिए शास्त्रीय नृत्य सिर्फ़ मनोरंजन का साधन नहीं है, वस्‍तुत: यह दूसरों को खुश करने का एक तरीका है। बहुत छोटी उम्र में, मैं अपने एक पड़ोसी को भरतनाट्यम का अभ्यास करते हुए देखती थी और मैं हमेशा से ही इसकी ओर आकर्षित थी, इसलिए उन्हाेंने आरंभ में भरतनाट्यम की कक्षाएं अपने पड़ोस में ही लेना आरंभ कर दिया था। शायद, मैं भरतनाट्यम के लिए नहीं बनी थी, इसलिए आगे मेरे जीवन में ओडसी नृत्‍य स्‍थायी भाव की तरह स्‍थ‍िर हो गया, जब मेरे जीवन में पद्मविभूषण स्वर्गीय गुरु केलुचरण महापात्रा का आगमन हुआ, उनका यह आगमन जैसे उनके लिए संपूर्ण जीवन भर के लिए उजास भर देने वाला सिद्ध हुआ।’’

शुभदा बताती हैं कि उसके बाद मैंने अपने जीवन में एक कलाकार के रूप में वह पाया जिसकी कामना हर कलाकार अपने जीवन में अवश्‍य करता है। गुरुवर केलुचरण महापात्राजी ने अपने मार्गदर्शन में लेकर ओडिसी नृत्‍य की वो बारीकियां बताईं जो नृत्‍य की सफलता के लिए आवश्‍यक हैं। अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर शुभदा सिर्फ एक नृत्‍यांगना होने तक सीमित नहीं रहीं, वे नृत्‍य के साथ कुछ समय तक टेलीविजन पर समाचार वाचक के रूप में भी काम करने के लिए आगे आईं और बहुत सफल रहीं। साथ ही वे एक समय में मुंबई के आर.आर.रुइया कॉलेज में व्याख्याता भी रहीं।

'नृत्‍य जन्‍म से लेकर मरण तक मेरे साथ है'-

शुभदा से पूछा गया कि आपके सामने जीवन में सफल होने के अन्‍य सरल रास्‍ते भी थे। अपेक्षाकृत एक कला साधक के रूप में अपने को गढ़ने, तब आपने वह रास्‍ते व्‍याख्‍याता बनने या एक सफल एंकर अथवा पत्रकारिता काे न चुनते हुए इसी रास्‍ते पर आगे बढ़ने का संकल्‍प कैसे लिया? यह प्रश्‍न सुनकर शुभदा थोड़ी देर के लिए गहरी शांति में चली जाती हैं, फिर एक मौन हंसी छोड़ती हैं, जैसे उनके चेहरे का प्रदीप्‍त भाव अपने आप में सब कुछ बयां कर रहा हो! फिर वे बोलीं, ‘‘मैं कई काम करते हुए हर बार नृत्‍य पर आकर अटक जाती थी, ऐसा नहीं था कि सरल मार्ग पर जाना किसी को अच्‍छा नहीं लगता है, किंतु नृत्‍य एक बड़ी साधना है, यह एक तरह से अपने आराध्‍य की आराधना है, जो पूर्ण समर्पण मांगता है। मैंने देखा कि समय के साथ कई चीज आईं और गईं किंतु इस बीच नृत्य ही एकमात्र ऐसा रहा जो पहले भी मेरे साथ बना हुआ था और वर्तमान में भी मैं उसी की ओर अपना पूरा खिंचाव महसूस करती हूं, फिर मेरे गुरुवर का हर बार कुछ नया करने एवं नया सिखाने का जो प्रयास था, वह भी मुझे सदैव ओडसी नृत्‍य के लिए ही जागृत रखता। अत: कुल मिलाकर मेरे जीवन के विभिन्न चरणों में हर समय मेरे साथ यदि कुछ रहा तो वह नृत्‍य ही है, इसलिए वह कल भी मेरे साथ था आज भी है और आगे जीवन के अंत‍ि‍म क्षण तक मेरे साथ रहेगा।’’

आज सफलतम नृत्‍यांगना के रूप में ‘शुभदा वराडकर’ विश्‍व में प्रसिद्ध हैं-

उल्‍लेखनीय है कि शुभदा वराडकर सिर्फ भारत भर में ही नहीं आज विश्‍व प्रसिद्ध शास्त्रीय नृत्यांगना हैं। उन्हें भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा वरिष्ठ फैलोशिप प्राप्त है। वे पिछले 35 वर्षों से नियमित रूप से बच्चों को शास्त्रीय नृत्य सिखाती हैं और दुनिया भर में विभिन्न स्थानों पर ओडिसी नृत्य की कार्यशालाएँ आयोजित करती हैं। उन्होंने स्कूल ऑफ़ फिलॉसफी, स्पेन और यूके के लिए नृत्य कार्यशालाएँ आयोजित की हैं। उन्होंने "द ग्लिम्प्स ऑफ़ इंडियन क्लासिकल डांस" नामक एक ई-बुक भी लिखी है। साथ ही, उन्होंने "मयूरपंख" नामक एक अन्य पुस्तक में डिम्बग्रंथि के कैंसर से अपनी लड़ाई का दस्तावेजीकरण किया है। यह प्रिंट, ऑडियो बुक और ई-बुक प्रारूप में प्रकाशित होने वाली पहली मराठी पुस्तक है। एक कलाकार के रूप में शुभदा वराडकर आज अखिल भारतीय गंधर्व महाविद्यालय, मिराज की परीक्षा समिति की सदस्य हैं। वह संस्कृत फाउंडेशन की संस्थापक निदेशक और अध्यक्ष हैं। यह मुंबई में एक पंजीकृत सांस्कृतिक ट्रस्ट है, जो वंचित बच्चों को नृत्य की शिक्षा देता है और टाटा मेमोरियल सेंटर में कैंसर रोगियों के लिए धन भी एकत्र करता है।

उनकी महत्वपूर्ण प्रस्तुतियों में डॉ. धर्मवीर भारती की कविता पर आधारित "कनुप्रिया", स्वामी विवेकानंद के जीवन और दर्शन पर आधारित "जर्नी टू डिविनिटी", संत ज्ञानेश्वर के साहित्य पर आधारित "अमृतघनु" और रवींद्रनाथ टैगोर की "चित्रांगदा" शामिल हैं। नृत्य के प्रति उनकी गहरी प्रतिबद्धता ने उन्हें श्रृंगार मणि, महाराष्ट्र गौरव, प्रियदर्शिनी, महारी पुरस्कार और कई अन्य सहित प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। उन्होंने एलोरा महोत्सव-महाराष्ट्र, खजुराहो महोत्सव-यूके, महारी महोत्सव- भुवनेश्वर, नाट्यंजलि महोत्सव-चिदंबरम, ओडिसी नृत्य का राष्ट्रीय महोत्सव-भुवनेश्वर, भारत का महोत्सव-घाना, भारत का महोत्सव-वेनेजुएला और कई अन्य जैसे कई प्रतिष्ठित समारोहों में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी कलात्मक उत्कृष्टता से दर्शकों को मंत्रमुग्ध किया है। उन्होंने प्रयाग और नमामि सहित विभिन्न सांस्कृतिक उत्सवों का आयोजन किया है। दूरदर्शन के लिए 'ए' ग्रेड की राष्ट्रीय कलाकार हैं और भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, नई दिल्ली की सूचीबद्ध कलाकार हैं।

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