सनातन में सतयुग से है हरतालिका महाव्रत दाम्पत्य जीवन का मूलाधार
हरतालिका तीज व्रत (26 अगस्त) पर विशेष - डॉ. आनंद सिंह राणा
सनातन धर्म में हरतालिका महाव्रत, प्रेम, समर्पण, पवित्रता,पति की प्राप्ति और दीर्घायु, पारिवारिक समरसता, और शक्ति के अपूर्व सामर्थ्य का महापर्व है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कुटुम्ब प्रबोधन और सामाजिक समरसता की दृष्टि से इस व्रत की प्रासंगिकता और बढ़ गई है। हरतालिका व्रत, हिन्दुओं के महान् व्रतों में से एक है जो सर्वाधिक कठिन लक्ष्य प्राप्त करने की प्रेरणा देता है। फलस्वरूप सौभाग्यशाली गौरी जी, महादेव को प्राप्त कर ही लेती हैं।
प्रत्येक वर्ष भाद्रपद माह शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को हरतालिका तीज का व्रत रखा जाता है। इस दिन महिलाएं पति की दीर्घायु और अच्छे स्वास्थ्य के लिए हरतालिका तीज का निर्जला व्रत रखती हैं। हरतालिका तीज का व्रत सुहागिने और कुंवारी कन्याएं भी रहती हैं। हिंदू धर्म में हरतालिका तीज का बड़ा महत्व है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार हरतालिका तीज व्रत रखने से ही मां पार्वती को भगवान शिव पति के रूप में मिले थे। हरतालिका तीज पर भगवान शिव और माता पार्वती की विधि-विधान से पूजा करने से सुहागिनों को अखंड सौभाग्य की प्राप्ति होती है और कन्याओं के विवाह में आ रही समस्याएं दूर होती हैं। इसके साथ ही इस व्रत के प्रभाव से अच्छा वर भी मिलता है।
हरतालिका तीज एक पावन और भावनात्मक पर्व है, जो भगवान शिव और माता पार्वती के दिव्य मिलन का प्रतीक माना जाता है। आज के समय में अनेक पुरुष भी अपनी पत्नियों के साथ यह व्रत रखकर इस पर्व की भावना को और सशक्त बना रहे हैं। यही कारण है कि यह व्रत स्त्री-शक्ति, श्रद्धा और अटूट प्रेम का प्रतीक बन गया है।
हरतालिका व्रत पूजन कथा के पूर्व इसकी पूर्वपीठिका अवश्य जान लेनी चाहिए, ताकि इस व्रत के प्रयोजन का स्पष्टीकरण हो सके। शिव-शक्ति ही अखिल ब्रह्मांड में प्रेम की शाश्वतता का प्रतीक हैं। सती और शिव का अमर प्रेम अर्धनारीश्वर होकर प्रेम की पराकाष्ठा का द्योतक है। भावी पीढ़ी के लिए शिव-शक्ति का आदर्श प्रेम मार्गदर्शी है। कृष्ण चतुर्दशी की शिवरात्रि का यह वृतांत है, जब भगवान् श्रीकृष्ण से राधाजी ने प्रेम के वशीभूत होकर कहा कि विश्व में आपसे बड़ा प्रेमी कोई नहीं हो सकता है! तब श्री कृष्ण ने कहा नहीं राधा! इस अखिल ब्रम्हांड में महादेव से बड़ा कोई प्रेमी नहीं हो सकता और ऐसा कहने के साथ श्रीकृष्ण के आँसू निकलने लगे और उन्होंने राधा को बताना प्रारंभ किया,
महादेव ने "राख" तक नहीं छोड़ी पूरे शरीर में राख लपेट ली, वहीं सती के वाहन बाघ (सिंह) ने भी अपने प्राण त्याग दिए थे, तब महादेव ने सती के वाहन का चर्म पहन लिया जिसे आप हम बाघाम्बर के नाम से जानते हैं। आज भी महाकाल ने सती की राख को अपने शरीर में लपेट कर रखा है। महादेव प्रेम की अतल गहराईयों में थे, तब सभी देवताओं ने चिंतित होकर मुझसे प्रार्थना की तब मैंने (भगवान् विष्णु) सुदर्शन चक्र से सती के 52 टुकड़े कर दिए, जो महान् शक्तिपीठ बने।
महादेव ने उन टुकड़ों से भी सती की हड्डियाँ निकाल लीं और उनको गले में धारण कर लिया और आज भी धारण किए हुए हैं, उसके उपरांत महादेव योगी हो गये। प्रयोजन हेतु पार्वती के रूप में सती ने महादेव को पाने के लिए पुन: अवतार लिया महादेव ने उन्हें तभी स्वीकारा जब मैंने विश्वास दिलाया।
हरतालिका तीज व्रत कथा इस प्रकार है कि, एक बार कैलाश पर्वत पर माता पार्वती ने भगवान शिव से पूछा कि उन्हें ऐसा कौन-सा पुण्य मिला, जिससे वे शिव को पति रूप में प्राप्त कर सकीं। इस पर भगवान शिव ने उन्हें उनकी ही तपस्या की स्मृति दिलाई। माता पार्वती बाल्य काल से ही शिव को अपने मन में पति के रुप में शिरोधार्य कर चुकी थीं और इसी संकल्प के साथ उन्होंने 12 वर्षों तक कठोर तप किया। उन्होंने जंगल में रहकर पेड़ों के पत्ते खाए, अन्न का त्याग किया और हर मौसम की कठिनाइयों को सहा। उनके इस तप को देखकर उनके पिता, हिमालय राज चिंतित हो उठे। उसी समय नारद ऋषि भगवान विष्णु का रिश्ता लेकर आए, जिसे हिमवान (हिमालय राज) ने स्वीकार कर लिया। जब पार्वती जी को यह बताया गया, तो वे अत्यंत दुखी हुईं और अपने मन की बात सखियों से साझा की।
उन्होंने कहा कि वे तो पहले ही भगवान शिव को पति के रुप में स्वीकार कर चुकी हैं इसलिए किसी और से विवाह नहीं करेंगी। यह सुनकर सखियों ने उनको चुपचाप ले जाकर एक गुफा में छुपा दिया। वहीं पार्वती जी ने भाद्रपद शुक्ल तृतीया को हस्त नक्षत्र में मिट्टी से शिवलिंग बनाकर शिव जी की आराधना की और रात भर जागरण किया। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर शिव जी प्रकट हुए और उन्हें पत्नी रूप में स्वीकार किया। तब से यह व्रत सनातन में प्रचलित हुआ और महिलाओं का कंठहार बना।
पूजा सामग्री के रुप में फल, फूल, कपूर, घी, दीपक, मिठाई, सुपारी, पान, बताशा, घी, कुमकुम, पूजा-कलश, सूखा नारियल, शमी का पत्ता, धतूरा, शहद, गुलाल, पंचामृत, कलावा, इत्र, चंदन, मंजरी, अक्षत, गंगाजल, दूर्वा, जनेऊ, बेलपत्र, वस्त्र और केले का पत्ते का प्रावधान है। लाल रंग देवी पार्वती का प्रिय है, जो प्रेम और शक्ति का प्रतीक है। हरा रंग हरियाली और समृद्धि का संकेत देता है, जबकि गुलाबी रंग सौम्यता और आपसी समझ का प्रतीक माना जाता है। हरतालिका तीज में पूजा करते समय फुलेरा का बड़ा महत्व है। पूजा के दौरान भगवान शिव के ऊपर जलधारा की जगह फुलेरा बांधा जाता है। फुलेरा को पांच तरह के फूलों से बनाया जाता है। फुलेरा में बांधी जाने वाली 5 फूलों की मालाएं भगवान शंकर की पांच पुत्रियों (जया, विषहरा, शामिलबारी, देव और दोतली) का प्रतीक है।
हरतालिका तीज की पूजन विधि के अंतर्गत, सुहागिन महिलाएं प्रातः शीघ्र उठकर स्नान करें और नए वस्त्र पहनें तदुपरांत घर के मंदिर या पूजन स्थल में दीप प्रज्वलित करें। सभी देवी-देवताओं को धूप-दीप दिखाएं और व्रत का संकल्प लें। इसके बाद मां पार्वती, भगवान शिव और गणेश जी की विधि-विधान से पूजा करें। हरतालिका तीज व्रत कथा का पाठ करें और सभी देवी-देवताओं की आरती उतारें। मां पार्वती को श्रृंगार का सामान अर्पित करें और अखंड सौभाग्य की कामना करें।
कल्चरल मार्क्सिज्म के शिकार, लैला-मंजनू, शीरी-फरहाद और रोमियो-जूलियट की असफल प्रेम कहानियों में भटकते हुए न केवल भारत वरन् विश्व के स्त्री-पुरुषों को सनातन दृष्टि से प्रेम और विवाह को समझना होगा तभी प्रेम सफलीभूत होगा। प्रेम यदि दैहिक है तो निश्चित ही असफल होगा परंतु आध्यात्मिक भी है तो अमर रहेगा, सती और शिव का प्रेम इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। शिव-शक्ति ही अखिल ब्रह्मांड में प्रेम की शाश्वतता का प्रतीक हैं। सती और शिव का अमर प्रेम अर्धनारीश्वर होकर विवाह संस्कार के रुप में सफलीभूत होता है। भावी पीढ़ी के लिए शिव-शक्ति का आदर्श प्रेम और विवाह मार्गदर्शी है और हरतालिका व्रत उसका साक्षी है।
(लेखक, इतिहास के प्राध्यापक एवं इतिहास संकलन समिति महाकौशल प्रांत उपाध्यक्ष हैं।)