खूंटी में दम तोड़ रहा है परपंरागत हस्तकरघा उद्योग
खूंटी। खूंटी जिला मुख्यालय से लगभग पांच किलोमीटर दूर
तोड़ंगकेल के चिपसु डीह गांव में निबुचा बुनकर सहयोग समिति की ओर से संचालित
हस्तकरण उद्योग खूंटी ही नहीं, पूरे झारखंड में अपनी एक अलग पहचान बनाये
हुए है। यह उद्योग राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के इस कथन को चरितार्थ कर रहा
है, जिसमें बापू ने कहा था कि खादी केवल वस्त्र नहीं, बल्कि एक विचारधारा
है।
नाममात्र के संसाधन और 40-45 वर्ष पुराने शेड में संचलित इस
हस्तकरघा उद्योग में आज भी हैंडलूम के शॉल, ऊनी शॉल, सूती शॉल, पाढ़ साडी,
तोलोंग, बेड कवर, सोफा कवर का उत्पादन हो रहा है। आज भी यहां निर्मित
आदिवासी समाज के परंपरागत वस्त्र अपनी विशिष्ट स्थान रखते हैं। यहां से
निर्मित वस्त्रों की महत्ता को सिर्फ बात से समझा जा सकता है कि राज्य में
जब भी कोई बड़े राज्य नेता या विदेशी मेहमान आते हैं, तो उनका स्वागत यहां
से निर्मित वस्त्रों से किया जाता है।
खूंटी जिले में बड़ी संख्या
में बुनकर समाज गांधी जी द्वारा स्वदेशी को बढ़ावा देने के प्रयास को जीवित
रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। खूंटी के बुनकर समाज पूर्व में
अपने घरों में खादी वस्त्र बनाकर बेचा करते थे। बाद में खूंटी के तोडंगकेल
में एक सेंटर बनाकर सामूहिक रूप से कपड़ा उत्पादन शुरू किया गया। इसके बाद
बुनकरों ने निबुचा बुनकर सहयोग समिति का गठन कर हस्तकरघा से कपड़ा निर्माण
प्रारंभ किया। 1988 में सोसायटी एक्ट के तहत निबुचा बुनकर सहयोग समिति का
रजिस्ट्रेशन किया गया।
जर्मन अंग्रेंज डिटर हेकर बने बुनकरों का मसीहा
खूंटी
जिले के हितुटोला निवार्सी जयनाथ स्वांसी का पुश्तैनी पेशा हस्तकरघा से
कपड़ों का निर्माण है। जयनाथ हस्तकरघा से निर्मित कपड़ों को बेचने के लिए
रांची नामकुम के रामपुर बाजार जाते थे। एक बार वहां जर्मन अंग्रेज डिटर
हेकर की नजर हस्तकरघा से निर्मित कपड़ों पर पड़ी। उन्होंने हस्तकरघा से
निर्मित कपड़ों को काफी पसंद किया। बाद में जयनाथ स्वांसी को कपड़ों का आर्डर
देना शुरू किया। बुनकरों के मदद के लिए वे खूंटी भी आये और बुनकरों को
संगठित होकर संस्था का गठन करने और सामूहिक रूप से कपड़ा उत्पादन करने की
अपील की। 1988 में जब संस्था का सोसायटी रजिस्ट्रेशन के तहत निबंधन हुआ, तब
जर्मन अंग्रेज डिटर ने 20 एकड़ जमीन खरीदी और शेड तथा दो भवनों का निर्माण
भी कराया। वर्ष 1990 में रांची के आभाष कुमार चटर्जी बुनकरों की सहायता के
लिए आगे आये। उनके सहयोग से जर्मन अंग्रेज द्वारा खरीदी गई जमीन की
रजिस्ट्री हुई तथा 1996 में शेड का निर्माण कराकर निबुचा सहकारी सहयोग
समिति का विधिवत काम शुरू कराया। उन्होंने बुनकरों के लिए प्रशिक्षण की भी
व्यवस्था की।
प्रारंभिक समय में जर्मन अंग्रेज डिटर हेकर और बाद में
रांची के आभास कुमार चटर्जी बुनकरों के सहयोग के लिए आगे आये। उनलोगों
द्वारा आर्थिक सहायता भी समिति को दी गई। बुनकरों के लिए शेड और कार्यालय
का निर्माण कराया। साथ ही यहां बने निर्मित कपड़ों के लिए बाजार भी उपलब्ध
कराया। उन दोनों के प्रयास से ही कड़ी प्रतिस्पर्द्धा और फैशन के दौर में भी
यहां का परंपरागत हस्ताकरघा उद्योग अपना अस्तित्व बचाकर रखने में सफल है।
जर्जर शेड में बुनकर काम करने को विवश
1996
में निर्मित शेड अब काफी जर्जर हो गया है। जर्जर शेड में ही बुनकर अपने
पारंपरिक काम को पूरा कर रहे हैं। समिति द्वारा संचालित बुनकर केंद्र में न
तो दरवाजा है और न ही कोई खिड़की सही सलामत है। बुनकरों को सरकार और
प्रशासन से कई बार मदद का आश्वासन दिया गया, लेकिन अब तक कोई सरकारी मदद
नहीं मिली। आज भी बुनकर सरकारी मदद की बाट जोह रहे हैं।
यहां
निर्मित ऊनी शॉल, सूती शॉल, साड़ी, बेड कवर, सोफा कवर, रनर, तोलोंग, दरवाजा
खिड़कियों के पर्दे रांची और दूसरे स्थानों की बड़ी-बड़ी दुकानों में महंगी
कीमत पर बिक रहे हैं। लोगों द्वारा इनके उत्पादों को काफी सराहा जाता है।
राष्ट्पति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री को भी यहां से निर्मित शॉल उपहार में
दी जाती है, लेकिन इनकी मदद को कोई भी आगे नहीं आता है। इनके हिस्से में
सिर्फ आश्वासन भी आता है। इसके बावजूद बुनकर समाज गांधी जी के सपने को पूरा
करने में जुटा हुआ है।
बुनकर चाडा स्वांसी ने कहा कि जर्मन अंग्रेज
डिटर हेकर एवं उसके बाद रांची के आभास कुमार चटर्जी ने बुनकरों की काफी
मदद किया। उनके सबके सहयोग से हम अपने पारंपरिक धंधे को जीवित रख पा रहे
हैं। उन्होंने कहा कि बुनकरों को किसी प्रकार की सरकारी सहायता नहीं मिलती
है। बुनकरों को प्रधानमंत्री विश्वकर्मा योजना से भी नहीं जोड़ा गया है।
चाडा स्वांसी ने कहा कि संस्था महात्मा गांधी के सपनों को पूरा करने में
जुटी हुई है। उन्होंने कहा कि जर्जर शेड में काम करने से हमेशा खतरा बना
रहता है।
कोंता स्वांसी ने कहा कि जर्मन अंगेज हेकर ने यदि बुनकरों
की मदद नहीं की होती, तो शायद यह पारंपरिक काम काफी पहले ही छूट जाता।
उन्होंने कहा कि पूर्व कपड़ा मंत्री स्मृति ईरानी, पूर्व केंद्रीय मंत्री
अर्जुन मुंडा, जिला प्रशासन को मदद की गुहार लगाई गई थी, लेकिन आश्वासन के
अलावा कुछ भी नहीं मिला।
बुधवा स्वांसी ने कहा कि वे 1977 से
पुश्तैनी काम से जुड़े हैं। इस काम मे मेहनत के अनुरूप कमाई नहीं होती,
लेकिन जिस काम को वर्षों तक किया, उसे कैसे छोड़ सकते हैं। उन्होंने कहा कि
आज के युवा इस पेशे से दूरी बना रहे हैं। आधुनिकता के दौर पर हम पीछे साबित
हो रहे हैं। यदि हमें भी सरकारी सहायता मिलती एवं आधुनिक पावरलूम मशीन
मिलती तो कम समय में एवं बेहतर उत्पाद तैयार कर पाते, जिससे हमारी आमदनी
में भी वृद्धि होती। उन्होंने कहा कि यदि सरकारी सहरयता नहीं मिलेगी, तो यह
परंपरागत पेशा भविष्य में दम तोड़ देगी।